बुधवार, 14 मई 2014


Maan kavita ---shiv narayan johri

माँ 
 
 
माँ तुम -क्षर अमर हो  
प्यार की जीवंत आत्मा सी  
वर्णमाला के दूसरे  
बेजान अक्षर से अलग  
माँ तुम शब्द भी हो  
अर्थ से परिपूर्ण अपने में  
 
व्याकरण के पाश से निर्बंध  
नहीं विग्यान की छेनी हतोड़े से  
उकेरी गई कुछ निर्जीव रेखायें  
तुम्हारे नाम की रेखा  
विहँसती बोलती है माँ  
वात्सल्य की मूरत निरंतर पूजनिया ! 
 
माँ शब्द पावन प्यार से उद्भू  
भावना के सरोवर से नहा कर  
निकला हुआ उद्गार है! 
 
माँ की आँख में सारा समुंदर  
कोख में वात्सल्य की गंगा  
महके या महके फूल  
डाल का वह एक सपना है  
धरती की तरह लाल के गुण दोष  
माँ के प्यार पर हावी नहीं होता  
एक चुंबन में विहसना  
सीख जाता शिशु  
बदल जाती है इंसान की दुनिया  
ज़िंदगी में रंग भर जाते अनेकों  
अमित विस्तार हैं तेरे 
तन बदन मन अंतरात्मा का  
 
आज भी हर मुसीबत में तुम  
खड़ी रहती हो हमारे पास  
वरदहस्त सिर पर रखे  
अपने लाल को साहस बँधाती माँ ! 
 
उफनते हुए वात्सल्य का  
संपूर्ण दर्शन उपनिषद् सा ! 
जगत जननी माँ तुम्हारी  
 
रचनाधार्मिता का  
ऱ्रिनि है संसार सारा! 
 
शिवनारायण जौहरी विमल