शनिवार, 20 अगस्त 2011

badalte tevar --

बदलते तेवर
उषा को शिकायत है
उसके ब्यूटी पार्लर में
अब सुंदरियाँ नहीं आती
पहिले भीड़ लगी रहती थी
चिक्कन कपोलों को
गुलाबी रंग देते देते
लुट जाया करती थी
बेहोश उषा को उठा कर
ले जाया करतीं थी
सूरज की किरणें !
प्राची की क्वारी किरणें
बैठ जाती थी खिड़की पर
बैठे बैठे ऊब जातीं थी
कोई उसे चूमने भी नहीं आता
निराश हो कर चली जातीं
व्यस्तता ने भावनाओं को
निगल लिया है क्या ?
चढ़ते सूरज की
पतली उंगलियों को
को शिकायत है कि पहिले
केश विन्यास कर दिया
कर दिया करतीं थी
नवेली बहुरियों का
उस कला का नमूना
अब तक सुरक्षित है
मंदिरों की दीवारों पर
अजंता और एलोरा में
लेकिन अब तो
खुले बालो का
फैशन ही हो गया है
सिसकियाँ ले रही है
वह कला !
बादलों को शिकायत है
बूँद -बूँद में घुंघरू बाँध कर
हमेशा की तरह आँगन में
उतार देता है नाचने के लिए
पर कोई साथ देने को
आता नहीं है !
रिमझिम के साथ
यमुना के तट पर
अब कान्हा की बाँसुरी
सुनाई नहीं देती
आजकल अंगान में
भींगे कपड़ों में से
झाकता सौंदर्य
अब दिखाई नहीं देता !
हवायें अठखेलियाँ करतीं
उड़ा ले जातीं दूर तक
दामन किसी का और
वह दौड़ती पीछे दोनों
हाथ से ढाके उरजों को
किंतु दामन अब
गले का हार है
आँचल नहीं है
लज्जा ढाकने की
वह प्रथा जाती रही है !!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

patthar ke dev ---kavita

पत्‍थर के देव
तुम पत्थर के देव
और मैं केवल पत्थर
तुम में मुझ में साम्य यही है
तुम भी पत्थर मैं भी पत्थर
मैं पत्थर से धूल बन
गया हूँ पिस पिस कर
तुम पत्थर से
देव बन गये हो
घिस घिस कर !
मैं जब से पिस गया
तभी से अजड़ हो गया
मानव के तलवे सहलाता
खेत और खलिहान सज़ाता
रंगीन सुवासित कर
धरती को स्वर्ग बनाता !
तुम जब से घिस गये
देव बनकर मंदिर में बंद
जगत की सच्चाई से दूर
किसी पंडे की दुकान
सज़ाए बैठे
मुस्का मुस्का कर
श्रध्दा को छलता रहते हो
भोला मानव तुमको
आँसू से नहला नहला कर
आँखें खो बैठा है पर
तुम पिघल नहीं पाते
जड़ता की मूर्ति बने हो
उस दिन सचमुच
तुम पूजे जाओगे जिस दिन
आडंबर के खंभ फाड़ कर
बाहर आ कर आर्त जनों
के कष्ट हरोगे
घर घर बसे सुदामा
के तुम चरण पखारोगे
नयनों से नीर बहा कर
गले लगा कर !!!
शिवनारायण जौहरी विमल

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

gandarv vivah

गंधर्व विवाह
समय के पहाड़ से खोद कर
चलो तराश लायें कुछ लम्हे
चैन के सुकून के
पर यह क्या
तराशे हुए टुकड़े भी गमगीन हैं
लगता है गहरे पैठ गये हैं
असंतोष और निराशा !
पिरामिड और सददामों के देशो से
कितना अलग है
हमारा देश
हमारा हथियार है सत्याग्रह !
हमने तो सब्जीमंडी मैं
सहज भाव से केवल मंहगाई
को ही तो नोचा था पर वे तो
लगे जोड़ने उससे
भ्रष्टाचार की पूतना से
जोड़ बाकी करते करते
वे तक नहीं रहे थे
जैसे उनका गंधर्व विवाह
उस पूतना से हो गया था !
भेड बकरियों के मालिक
घास पत्ती डालते रहो
और दूध पीते रहो
झगड़े से क्या लाभ
हमारे मुँह पर रात भर
कुत्ता मूतता रहा
पर किसी ने
भगाया तक नहीं !
कैसी बन गई है
हमारी मानसिकता ?
अब जब एक के बाद एक
दस्तक आने लगी है
आमरण अनशन की
तब हम अंगड़ाई लेने लगे है !
एक बुड्दा बोला
कांप गये वे लोग
सूखे पत्ते की तरह
पर गंधर्व विवाह हो
या सबके सामने का
कोई आसानी से
छोड़ छुट्टी नहीं देता !
भोंकने वाले कुत्ते
छोड़े तो थे
पर कुछ हुआ नहीं !
लगता है जनता का साहस
सड़क पर आ गया है !
भ्रष्टाचार के यह फटते हुए पेट
यह मुह फड़ते लौकर
\ यह देशद्रोह का
घिनौना चहरा
यह बेनकाव भूत
माँगता है दंड फाँसी का !
इससे पहिले की मिट्टी
सूख कर पत्तथर हो जाए
गीली मिट्टी से नई मूर्तियाँ गद्दो
नई संरचना के लिए !!!!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

सोमवार, 15 अगस्त 2011

ek chehra

एक चेहरा
एक चेहरा
(मौत की दहलीज्ञ को पकड़े हुए बैठा रहा
उम्र जाने कब दबा कर पॉव आगे बढ़ गई)
उम्र ने झुर्रियाँ उकेर कर
बनाया था एक चेहरा
एक जीटा जागता टेरीकोटा
हरेक संघर्ष की झुर्री !
उसने इस्तीफ़ा तो पहीले ही
भेज दिया था
पर वह मंजूर नही हुआ
लौटा दिया था उपर वाले ने
कहा था खंडहर का क्या करेंगे
अर्थहीन प्रक्रिया होगी
खुरचन से काम चलाते रहो
वालन्ट्री रिटायरमेंट का
कोई प्रावधान नही है !
कहाँ तक चिल्लाकर बात करें
घर वाले बाहर वाले
कोलाहल पर लकीर फेर कर
दूर बैठा दिया है उसने
भजन में मन लगाने के लिए
लेकिन कान तो बजते ही रहते हैं
रात दिन
जाने कौन कौन सी
भूली बिसरी आवाज़ों की परछाईयाँ
पीछा करती रहतीं है !
बिचारी जीभ लड़खड़ा जाती है
शब्द उलझ जाते हैं
कोई सार्थक वाक्य बनता ही नहीं
सुनने वाला क्या समझे
झुंझल आने लगती है
अपने ही ऊपर !
कुछ खाता हूँ तो
ओठों के कोने से
लार टपक जाती है कपड़ों पर
कोई कहाँ तक बदले
कहाँ तक धोए
आगंतुक का चेहरा
देखा सा लगता है
नाम याद नहीं आता
बिचारा थोड़ी देर तक
बैठ कर चला जाता है
इतना में अचानक एक
खिड़की खुलती है
अरे वे तो मुन्ने मियाँ थे
मेरे बचपन के दोस्त
आँखों के गड्डो से
केवल झाईं दिखती है
चेहरा नही दिखता
पर दिखते रहते हैं
वे सपने जिनमें से
गुजरती रहतीं है यादें
जब मुन्ने मियाँ से
बैठ कर बातें करते
गुजर जाया करती थी
चाँदनी रात !!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल