मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

सोमवार, 21 नवंबर 2011

शनिवार, 17 सितंबर 2011

kyuki chalna hi niyati hai

क्योकि चलना ही नियति है !
घना जंगल एक पगडंडी अकेली
दिशाएं मौन है डूबी अंधेरे में
जा रहा हूँ मैं अकेला
बस यही है आज का सच
चल रहा हूँ क्योकि
चलना ही नियति है!!
आ गया अब एक चौराहा
दाँत फाडे सामने आकर है खड़ा
किधर जाऊ नहीं मैं जानता हूँ
पीछा कर रहा हैं घोर कोलाहल
ढोल अपना सब बजाते हैं
सभी अपने गीत गाते हैं
कौन सच है कौन है केवल मुखौटा
कौन पगडंडी सही है
कौन है केवल भुलावा
मापने का यंत्र तो मिलता नही है
राह मेरी सही है या ग़लत
यह मैं जानने काबिल नही हूँ
बाढ़ सी आई हुई है
बहे जाते हैं अनेकों
कौन जाने कहाँ कब कौन सा बजरा
किनारे पर लगेगा
भाव आते हैं अनेकों
किंतु सब नेपथ्य से टकराए
वापस लौट आते हैं
मेरी पगडंडी मुझे भाने लगी हैं
राह निर्धारित तुम्ही ने की
यही हैं मान्यता मेरी
मुझे विश्वास है पूरा
तुम कहीं तो हो
कभी शायद मिलोगो भी
मैने सुना है यह
अहम की लाश पर बैठा मुसाफिर
हर हाल मैं उस पार पहुचा है
काट कर व्यवधान सारे
इसी विश्वास में चल रहा हूँ
क्योकि चलना ही नियति है !!!!!!!!!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

बुधवार, 24 अगस्त 2011

jeebh kavita

जीभ
महिमा अमित सुनाती जीभ
ममता को दौड़ा- दौड़ा कर
तुतलाते अटपटे बोली में
माँ का प्यार जगाती जीभ !
महिमा------------------------
भुज पाशों में गुंथी हुई सी
प्यार भरे घूँघट के अंगना
पिय से आँख लड़ाती जीभ !
महिमा-------------------------
पायल के छंम-छम नर्तन में
वीणा के तारों पर चलकर
ढोल बजाती गाती जीभ !
महिमा -----------------------
जब बसंत में झुके डालियां
फूल-फूल पर चढे जवानी
मधुरस के घट पीती जीभ!
महिमा---------------------------
सावन में बिछ गई हरियाली
बूँदों की रिमझिम के संग संग
कजरी गाती जाती जीभ !
महिमा-------------------------
रंग गुलाल से सनी बहुरिया
लरिका लरकी करें ठिठोली
नए-नए फाग सुनाती जीभ !
महिमा-------------------------
जब- जब रास रचे जमुना तट
ताली दॅ दॅ नचे गोपिया
मुरली माधुर बजाती जीभ !
महिमा---------------------------
मन में उठते हरेक भाव को
जब तक व्यक्त ना करना चाहे
ताला तुरत लगाती जीभ !
महिमा------------------------
आँखें जो कुछ देख रहीं हैं
भाषा को चित्रों दृश्यों को
सबको पढ़ती जाती जीभ !
महिमा----------------------
गहरे में डूबे हों दो मन
आँखों में आँखें उलझी हों
प ढ़े प्यार की पाती जीभ !
महिमा------------------------------
उलझे जब काँटों में मैत्री
हो आक्रोश चरम सीमा पर
सुलझी राह दिखाती जीभ !
महिमा---------------------------
ह्रदय चीर कर रख देती है
घाव नहीं भर पाते बरसों
अगर सख़्त हो जाती जीभ !
महिमा--------------------------
उखड़ी हो या सख़्त ज़मी हो
सब हमवार बनाती जीभ !
प्यार की जोत जगाती जीभ !
महिमा----------------------------------
बेज़ुबान के जुबा लगाकर
मुई सांस से सार भस्म कर
नई मशाल जलाती जीभ !
महिमा----------------------------!!!!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

सोमवार, 22 अगस्त 2011

main tumhara hun

मैं तुम्हारा हूँ
जैसे सूर्य ने ऊर्जा और रोशनी सबके लिए
उसी व्यापक रूप में मैं भी तुम्हारा हूँ !
तुम मुझे जानो या न जानो फ़र्क कुछ पड़ता नहीं
जानता हूँ मैं तुम्हे यूँ मैं मैं तुम्हारा हूँ !
तुम मुझे पूजो न पूजो कोई मजबूरी नहीं
गीत गाओ या न गाओ मैं तुम्हारा हूँ !
हाथ फैलाओ न फैलाओ अदेय मैं देता नहीं
गीत गाओ या न गाओ मैं तुम्हारा हूँ !
प्यार करते हो करो वरना गिला कोई नहीं
प्यार की मैं इंतहा हूँ मैं तुम्हारा हूँ !
गालियाँ दो मूर्तियाँ तोडो टूट मैं सकता नहीं
हाथ जोड़ो या न जोड़ो मैं तुम्हारा हूँ !
निस्पृही आकाश हूँ अच्छे बुरे सबके लिए
मानसिकता आँकता हूँ मैं तुम्हारा हूँ !
कौन कैसे कर रहा क्या जानता हूँ मैं
मन के अंदर झँकता हूँ मैं तुम्हारा हूँ !
प्यार की यह संपदा जो मैं सहेजे हूँ
बाँट देता पात्र के अनुरूप मैं तुम्हारा हूँ !
महा गन्धि हर तरह की गंध मेरे पास है
अंजुलि भर भर लुटाता मैं तुम्हारा हूँ !
जान लो इस श्रृष्टि का मैं ही रचियता हूँ
मैने सावरा है तुम्हे यूँ मैं तुम्हारा हूँ !!!!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

jaagte raho

जागते रहो
नवीन कल्पना करो
प्रबुद्ध योजना करो
अखंड साधना करो
मातृ वंदना करो
\
नित नवींन भव्य भव्य मूर्तियाँ गढो
रोज़ नये शिखर नई सीढीयाँ चढो
द्रोह दाह दग्ध करो ताप तम हरो
मातृ वंदना करो
जवान जागते रहो !
प्यास के प्रकाश मैं बढा चलो कदम
जल प्रपात ढूंड कर रहेंगे आज हम
तास के प्रवाह में उछाह तो भरो
मातृ वंदना करो
जवान जागते रहो
टूट रहीं झोपड़ी उठ रहे भवन
लो नया मिलिनियंम कर रहा नमन
हिंम किरीट की चमक दिगान्त में भरो
मातृ वंदना करो
जवान जागते रहो !
तुम अदम्य शक्ति के अजेय पूत हो
न्याय के अमन के तुम राजदूत हो
मातृ वंदना करो
जवान जागते रहो
झूम रहे भेड़िए सरहदों के पार
नींद आ न जाए कहीं प्रहरी को यार
मातृ वंदना करो
जवान जागते रहो !!!!!!!!!!
शिव नारायण जौहरी विमल
http://www.youtube.com/watch?v=SR9DdI6K1Pc&feature=player_detailpage

रविवार, 21 अगस्त 2011

hari naam bhajan

हरिनाम
श्रद्धा में डूबी रसना से बोलो भव तारक हरि नाम
भजो एक रस तन्मय हो कर प्रभु का नाम ललाम !
जिनका नाम लिखा पाहन --पट तरिणी सा तर जाए
जिनकी चरण शरण पा गंगा जग तारण को धाए !!
उनके नाम की छाया में दो घड़ी करो विश्राम !
भजो-----------------------------------------------------------
अतुल सैन्य बल छोड़ पार्थ क्यों माँगे घनश्याम
ह्दय चीर कर बजरंगी ने दरस कराए राम
प्रभु नाम की उस गंगा में डुबकी लो निष्काम
भजो-----------------------------------------------------------
खंभ फाड़ नरसिंह प्रकट भए रखी नाम की लाज
जिन प्रयास ही मिला विभीषण को लंका का राज
परिहरी लाज़ भजो रघुवर जग तारक गुण ग्राम
भजो----------------------------------------------------------------
सुंदर श्याम सलोने लोचन सुमिरत ही मन भाव
बाल रूप में भजत मुरारी रघुपति के गुण गावे
ऐसे प्रभु की नाम प्रसादी सिर धरी करो प्रणाम !!!!!!!!!!!!!
(आकाश वाणी मुंबई से प्रसारित )
शिव नारायण जौहरी विमल

gazal

ग़ज़ल
कोई बंधनों के घर आ कर उतर गया
हम हैं कि उसके जन्म की खुशियाँ मना रहे
चाबी तो साथ लाए थे दुनिया की हम मगर
इस ज़िंदगी का ताला तो हम से खुला नहीं
ताले से जूझ--जूझ कर गुम होश हो गए
जब होश में आए तो ताला ही नहीं था
दुनिया में जिस खुशी की हमें जूस्तजू रही
वह जब मिली तो जोश ने इन्कार कर दिया
जब जिंदगी को प्यास का साकी बना दिया
तो फिर सुकून किस के लिए ढूँढते हैं हम
कोई तो झुका हुआ था अपने मज़ार पर
और हम उसी को ज़िंदगी कहते चले गए
दर-दर की ठोकरें मिलीं बेआबरू थे हम
तेरी निगाह बदली तो सब कुछ बदल गया
पिंजरा ही रास आ गया रहने के बाद यूँ
की आज़ाद हो रहे हैं तो रो रहे हैं हम !!!!!!!!!!!!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

pravasi bhartiya ----poem

प्रवासी भारतीय
जे जहाज़ को पंछी नइयां
मोटर बंगला छोड़ लौट के कौन चराबें गैया
जे पश्चिम की चकाचौध कछु एसी मन खों भाई
डैनन पे उड़ाए कें लें गई भारत की तरुणाई
काय बिराने देस लग रए तोखों सरग समैया
छूट गए सब नाते रिश्ते तड़पत रह गयो भैया
पीर मताई की नई जानी झटको भिगो अचरा
बैना के नैना से झर-झर बहत रह गयो कजरा
अपनी सुघर मडैया काहे तोखों रास न आई
हाय हरी री हवा गाँव की काये नहीं सुहाई
देस पराए जाखें गढ़ रए हो सोने पे सोना
जा माटी पे जनमे तासों गढों न एक खिलोना
खबर लौटने की करके तुम लौटे नइ हरज़ाई
घूरन के दिन कबै फेरिहें मेरे राम गोसाईं
गए रहे तो कछु ऐसों तुम करतब उतें दिखाइयो
भारत के झंडे बिदेस में गाड़- गाड़ खे अइयो !!!!!!!!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल
एच. आई जी. १३७/ ई ७
अरेरा कालोनी
भोपाल (भारत)

शनिवार, 20 अगस्त 2011

badalte tevar --

बदलते तेवर
उषा को शिकायत है
उसके ब्यूटी पार्लर में
अब सुंदरियाँ नहीं आती
पहिले भीड़ लगी रहती थी
चिक्कन कपोलों को
गुलाबी रंग देते देते
लुट जाया करती थी
बेहोश उषा को उठा कर
ले जाया करतीं थी
सूरज की किरणें !
प्राची की क्वारी किरणें
बैठ जाती थी खिड़की पर
बैठे बैठे ऊब जातीं थी
कोई उसे चूमने भी नहीं आता
निराश हो कर चली जातीं
व्यस्तता ने भावनाओं को
निगल लिया है क्या ?
चढ़ते सूरज की
पतली उंगलियों को
को शिकायत है कि पहिले
केश विन्यास कर दिया
कर दिया करतीं थी
नवेली बहुरियों का
उस कला का नमूना
अब तक सुरक्षित है
मंदिरों की दीवारों पर
अजंता और एलोरा में
लेकिन अब तो
खुले बालो का
फैशन ही हो गया है
सिसकियाँ ले रही है
वह कला !
बादलों को शिकायत है
बूँद -बूँद में घुंघरू बाँध कर
हमेशा की तरह आँगन में
उतार देता है नाचने के लिए
पर कोई साथ देने को
आता नहीं है !
रिमझिम के साथ
यमुना के तट पर
अब कान्हा की बाँसुरी
सुनाई नहीं देती
आजकल अंगान में
भींगे कपड़ों में से
झाकता सौंदर्य
अब दिखाई नहीं देता !
हवायें अठखेलियाँ करतीं
उड़ा ले जातीं दूर तक
दामन किसी का और
वह दौड़ती पीछे दोनों
हाथ से ढाके उरजों को
किंतु दामन अब
गले का हार है
आँचल नहीं है
लज्जा ढाकने की
वह प्रथा जाती रही है !!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

patthar ke dev ---kavita

पत्‍थर के देव
तुम पत्थर के देव
और मैं केवल पत्थर
तुम में मुझ में साम्य यही है
तुम भी पत्थर मैं भी पत्थर
मैं पत्थर से धूल बन
गया हूँ पिस पिस कर
तुम पत्थर से
देव बन गये हो
घिस घिस कर !
मैं जब से पिस गया
तभी से अजड़ हो गया
मानव के तलवे सहलाता
खेत और खलिहान सज़ाता
रंगीन सुवासित कर
धरती को स्वर्ग बनाता !
तुम जब से घिस गये
देव बनकर मंदिर में बंद
जगत की सच्चाई से दूर
किसी पंडे की दुकान
सज़ाए बैठे
मुस्का मुस्का कर
श्रध्दा को छलता रहते हो
भोला मानव तुमको
आँसू से नहला नहला कर
आँखें खो बैठा है पर
तुम पिघल नहीं पाते
जड़ता की मूर्ति बने हो
उस दिन सचमुच
तुम पूजे जाओगे जिस दिन
आडंबर के खंभ फाड़ कर
बाहर आ कर आर्त जनों
के कष्ट हरोगे
घर घर बसे सुदामा
के तुम चरण पखारोगे
नयनों से नीर बहा कर
गले लगा कर !!!
शिवनारायण जौहरी विमल

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

gandarv vivah

गंधर्व विवाह
समय के पहाड़ से खोद कर
चलो तराश लायें कुछ लम्हे
चैन के सुकून के
पर यह क्या
तराशे हुए टुकड़े भी गमगीन हैं
लगता है गहरे पैठ गये हैं
असंतोष और निराशा !
पिरामिड और सददामों के देशो से
कितना अलग है
हमारा देश
हमारा हथियार है सत्याग्रह !
हमने तो सब्जीमंडी मैं
सहज भाव से केवल मंहगाई
को ही तो नोचा था पर वे तो
लगे जोड़ने उससे
भ्रष्टाचार की पूतना से
जोड़ बाकी करते करते
वे तक नहीं रहे थे
जैसे उनका गंधर्व विवाह
उस पूतना से हो गया था !
भेड बकरियों के मालिक
घास पत्ती डालते रहो
और दूध पीते रहो
झगड़े से क्या लाभ
हमारे मुँह पर रात भर
कुत्ता मूतता रहा
पर किसी ने
भगाया तक नहीं !
कैसी बन गई है
हमारी मानसिकता ?
अब जब एक के बाद एक
दस्तक आने लगी है
आमरण अनशन की
तब हम अंगड़ाई लेने लगे है !
एक बुड्दा बोला
कांप गये वे लोग
सूखे पत्ते की तरह
पर गंधर्व विवाह हो
या सबके सामने का
कोई आसानी से
छोड़ छुट्टी नहीं देता !
भोंकने वाले कुत्ते
छोड़े तो थे
पर कुछ हुआ नहीं !
लगता है जनता का साहस
सड़क पर आ गया है !
भ्रष्टाचार के यह फटते हुए पेट
यह मुह फड़ते लौकर
\ यह देशद्रोह का
घिनौना चहरा
यह बेनकाव भूत
माँगता है दंड फाँसी का !
इससे पहिले की मिट्टी
सूख कर पत्तथर हो जाए
गीली मिट्टी से नई मूर्तियाँ गद्दो
नई संरचना के लिए !!!!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

सोमवार, 15 अगस्त 2011

ek chehra

एक चेहरा
एक चेहरा
(मौत की दहलीज्ञ को पकड़े हुए बैठा रहा
उम्र जाने कब दबा कर पॉव आगे बढ़ गई)
उम्र ने झुर्रियाँ उकेर कर
बनाया था एक चेहरा
एक जीटा जागता टेरीकोटा
हरेक संघर्ष की झुर्री !
उसने इस्तीफ़ा तो पहीले ही
भेज दिया था
पर वह मंजूर नही हुआ
लौटा दिया था उपर वाले ने
कहा था खंडहर का क्या करेंगे
अर्थहीन प्रक्रिया होगी
खुरचन से काम चलाते रहो
वालन्ट्री रिटायरमेंट का
कोई प्रावधान नही है !
कहाँ तक चिल्लाकर बात करें
घर वाले बाहर वाले
कोलाहल पर लकीर फेर कर
दूर बैठा दिया है उसने
भजन में मन लगाने के लिए
लेकिन कान तो बजते ही रहते हैं
रात दिन
जाने कौन कौन सी
भूली बिसरी आवाज़ों की परछाईयाँ
पीछा करती रहतीं है !
बिचारी जीभ लड़खड़ा जाती है
शब्द उलझ जाते हैं
कोई सार्थक वाक्य बनता ही नहीं
सुनने वाला क्या समझे
झुंझल आने लगती है
अपने ही ऊपर !
कुछ खाता हूँ तो
ओठों के कोने से
लार टपक जाती है कपड़ों पर
कोई कहाँ तक बदले
कहाँ तक धोए
आगंतुक का चेहरा
देखा सा लगता है
नाम याद नहीं आता
बिचारा थोड़ी देर तक
बैठ कर चला जाता है
इतना में अचानक एक
खिड़की खुलती है
अरे वे तो मुन्ने मियाँ थे
मेरे बचपन के दोस्त
आँखों के गड्डो से
केवल झाईं दिखती है
चेहरा नही दिखता
पर दिखते रहते हैं
वे सपने जिनमें से
गुजरती रहतीं है यादें
जब मुन्ने मियाँ से
बैठ कर बातें करते
गुजर जाया करती थी
चाँदनी रात !!!!!
शिवनारायण जौहरी विमल

बुधवार, 10 अगस्त 2011

Apraadh mera naahi hai-----1-----shivnarayan johri

page2

page3

page4

page 5

page 6

abhaagi bahu

अभागी बहू
ब्याह के समैया पे
सपने संजोय कैसे
तितली सी उड़त फिरि
समूचे आसमान में
समुंदर में जैसे
ज्वार भाटा सो आत रओ
सपान सच होत नइया
एसे उछाह के !
पीहर में आई तो
करमन में गडडे मिले
पाथरा ही पथरा !
एसी कछु गिरी गाज
असुअन में डूब गई
सिगरी उमरिया !
"बजरी' खो मिली रोज़
गारिन की सौगात
डायन ने खाए लाए
अपने मताई बाप
पीहर में जीं गई
अपनो ही अचरा !
फटी फटी आखन में
देख रही घूर-घूर
जैसे खा जाएगी
हंम सबको जिगरा !
मौत पे तनिक ज़ोर
होतउ तो नैइयाँ
वरना मर जाती तभई
धनी के समुहियाँ !
फटे जात कान सुनत
रोज़ की जे गरियाई !
बैठ गए घन धरती पे
घर के ही कौआ !
लूट लाई सबने मिल
सारी बजरिया !
चूल्‍हे में गयो दुलार
रोवत है मढ़ा द्वार
छूटो सिंघार प्यार
छूट गयो पलका !
धरती की सेज़ मिली
लुगडी एक कटी फटी
जूनो सो लहंगा
और हाथन में रह गए
झाडू और पौछा !
वाह! री दुनिया
औरत ही औरत ख़ान
खाबे को दौड़ रही
अपनोपन खड़ो खड़ो
आँसू टपकात जात
अभागी बहुरिया खों मिली
यह भीगी सौगात !!!
शिवनारायण ज़ोहरी "विमल"

andhkaar

अंधकार
संध्या के समय थके हुए सूरज
की आँखें लाल हो जाती हैं
गरमी शांत हो जाती है
और धीरे-धीरे
डूब जाता है वह
क्षितिज के उसपार
तब उभर जाता है
अंधकार..
वह भी
भय प्रकट कृपाला की तरह
प्रकट हो जाता है
किसी की कोख से जन्म नहीं लेता..
प्रकाश आश्रित होता है
किसी प्रकाशपुंज पर और
किरनो का फैला जाने के लिए
दूर तक फैल जाने के लिए
अंधकार को न किसी
श्रोत की ज़रूरत न वाहन की...
उसके साम्राज्य का अस्तित्व
तो पहिले भी था पर
छिपा लिया था सूरज
की चकाचौध ने.....
सच तो यह है कि
यह ब्रम्‍हांड लिपटा हुआ है
आसमान की तरह
अंधकार की मोटी चादर में.
वह तो शायद सूरज के
बनने के पहीले से
विध्यमान रहा होगा !
अंधेरे में ही ब्रम्‍हान्ड की रचना
शुरू हो गई होगी..!
अंधकार क्रोध है निराशा है
मन की हार है अनास्था है
भय है अग्यान है
प्रकाश का अत्यांतिक अभाव है
वह प्रश्रय देता है चोरी जुआ
अनाचार अत्याचार को !
अंधकार के झंडे तले
डूब जाते है भेद भाव
सारे के सारे
नाकाम हो जाती है
धरती को बाँटने की साज़िश
अर्थहीन हो जाते है
वे बुलंद नारे
जो चीख-चीख कर कहते थे
पहाड़ तुम्हारे मैदान हमारे
ग़रीबी तुम्हारी करोड़ों हमारे!
आँसू तुम्हारे ठहाके हमारे!
उन पर स्याही
फेर देता है अंधकार !
कोलाहल ठहर जाता है
और प्रशांत सागर सा
एक अज़ीब सन्नाटा
एक अज़ीब सा एकांत
छा जाता है दिग दिगान्तों तक !
भीतर की आँख ढूँढने लगती है
उसको जो यहीं कहीं रहता है !
पनपने लगता है इंतज़ार !
आ रहा है वह
सुनाई दे रही है
उसकी पदचाप
वह आएगा कश्ती लेकर
और ले जाएगा
सागर के पार अपनी दुनिया में !
इस तरह अंधकार को
तुम जियो तब तक
जब तक कि मन
ईश्वरोन्मुख ना हो जाए !
और अंधकार को पियो
तब तक जब तक
की आँख के आगे
सबेरा न हो जाए !!!
शिवनारायण जौहरी विमल

रविवार, 12 जून 2011