सोमवार, 23 अगस्त 2010

जिजीविषा---------मरते रहते थे इन्सान

मरते रहते थे इन्सान स्वारथ से सब देश बंधे हैं मानवता की कौन सुने । जिसके पास अहिंसक मन है उस अबला की कौन सुने।। ट़ेङ सेंटर ध्वस्त हुआ क्या तब से जलने लगा जहान। इसके पहिले बहुत शाँति से मरते रहते थे इन्सान ।। कब से जलता कश्मीर है किसने इसकी सुनी पुकार । भारत कब से झुलस रहा है होता जन-जन का संहार।। निरपराध मर रहे हजारों अँधी बंदूकों के हाथ । घृणा और बर्बरता दोनों नंगे नाच रहे हैं साथ।। राख हो गए उनके सपने सडकों पर बहता है खून । बिलख रहा बचपन अनाथ सा वहशीपन पर चढा जनून ।। कितने बालक वृध्द निहत्थे गोली पर हो गए सवार । कितनी मांगे पुछीं रह गई विधवा कितना हुआ दुलार ।। नयन मूँद कर विष्णु सो गए धरती करती रही पुकार । हाथ बाँध आसरा तकोगे इससे क्या होगा उपचार ।। खाण्डव वन में आग लगी है मौत मचाए हाहाकार । अब गांडीव उठा लो अर्जुन जड पर सीधा करो प्रहार ।।।।। शिवनारायण जौहरी विमल

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

जिजीविषा-------------ठहरा हुआ आसमाँ

ठहरा हुआ आसमाँ
ठीक सब कुछ वही है
हाँ । वही तो है
कुछ बदलता नहीं है
एक चिडिया ने वही अपना
चिरपिराहट का पुराना गीत
फिर गाया ।
ठहरा हुआ सा आसंमाँ
ठहरा हुआ यह पल
कि जैसे एक पहिया
कर्ण के रथ का
धरा में धँस गया हो।
खिलखिलाती जा रही सरिता
दहाडे मारता सागर
पूर्ववत ठहरे हुए हैं
और सारे राग सारे रंग
जैसे सो रहे हैं
लोरियों में भीग कर ।
हरी सी मखमली कोयल
गोद में लेटी हुई है
लाडले माँ के
वह प्रकृति भी
एक शाश्वत सत्य है
ऐसा गुमाँ होने लगा है।।।
शिवनारायण जौहरी विमल

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

जिजीविषा------बचपन

बचपन
बदलते हुए ऊषा के
रंगों से भीग कर
गूँजती शहनाई से
दूर दूर प्रान्तर में
स्वर मिलाती हुई
तरंगायित लहरों पर
गुलाबी सी कोर लगा
नव-जात शिशु जैसा
झाँकता सबेरा ।
किसलय से मकरंदित
वायु के झकोँरोँ ने
फूलों लदी डाली से
बरसाए सुमन और
हरी-भरी धरती को
चादर से ढाँक दिया।
नींद में मचल रहे
किलबिल से जीवन की
भूख को बुझाने चले
चुग्गा को ढूँढ रहे
उन फैले डैनों से
लिपट गया ऊषा
के आँचल को
चूमता सबेरा।
और वहीं गोदी में
सुनहले से पारदर्शी
प्यार ने दुलार ने
कर लिया बसेरा
मुस्काते तुतलाते
अस्फुट स्वरों में सना
दिन का वह बचपन ही
बचपन था मेरा।।।।।।
शिवनारायण जौहरी विमल

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

जिजीविषा--------विहान

विहान
घूँघट हटाते रूप के सौंदर्य को
हर पल भिंगोती बांसुरी की धुन
वारूणी सी पी रही मधुमास की
पायल थिरकती जा रही रून-झुन ।
बादलों के दो रूपहले शावकों से
खेलती है उषा की सोनार अलकें
प्यास के गीले अधर ज्यों चूमते हों
भोर की अधखुली पलकों के किनारे।
क्षितिज से माँग कर लाई पवन ज्यों
तुम्हारे चरण धो कर पी रही ऊषा सुनहरी
धरा की सांस को नहला रहा गंधी परागन
दिशाएँ चूमतीं मदहोश पागल सी रंगीली ।
एक पंछी पंख फैला उड. रहा आकाश में
चिरपिराती झाडियों में छोडकर अपना बसेरा
रात के सपने सुनाए जा रही चिडिया बसंती
नदी तट पर नया जीवन ले रहा अंगडाईयाँ सी।।।।।
शिवनारायण जौहरी विमल

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

जिजीविषा-------पाप शाप तुम से हारे

पाप शाप तुम से हारे
पाप शाप तुम से हारे
उनके भव बंध निवारे
शरणागत आए जो भी
सारे उबारे ।
हे। माधव कृष्ण मुरारे
हम भी खङ़े हैं व्दारे
दोनों ही हाथ पसारे
मेरी बेर कैसे हारे
शरणागत आए जो भी
सारे उबारे।
काम जो दिए थे तुमने
कुछ तो बनाए हमने
और कुछ बिगारे
तुम्हें क्या बताएँ मोहन
माया में उरझे सारे
क्षमा दया तेरे व्दारे
शरणागत आए जो भी
सारे उबारे।
सांध्य के धुंधलके में
खो गई लकीरें सारी
खो गए किनारे सारे
अंधड ने नोच गिराए
ङार पात वंदनवारे
अब तो सहारे तेरे
नैया के खेवनहारे
शरणागत आए जो भी
सारे उबारे।
कहाँ जाएँ रोएँ भटके
साँझ से सकारे तेरे
चरण ही पखारे मैँने
बिगडी बनावन हारे
शरणागत आए जो भी
सारे उबारे।।।।।।
शिवनारायण जौहरी विमल

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

जिजीविषा

मेरे मन खोट घने
क्या करेगा पार लगाने वाला
मेरे मन खोट घने ।
क्या करेगा नाव चलाने वाला
पल-पल काठ गुने।
जड़ तरू चिक्कन पात लुनाई
सौरभ रंग रस मद तरूणाई
पौन कहे अनहद की गाथा
तरू सुन शीश धुने।
रवि रथ से आलोक बरसता
पल-पल जीवन ज्योति सरसता
मन उलूक तरू कोटर बैठा
आधी रात गने।
मधु पर बैठी है मन माखी
पद पंखों की सुधि नहिं राखी
पवन कहे चल दूर नगरिया
पंख अरू पैर सने।
सूखा तरू नदिया के तीरे
डूब रहा है धीरे- धीरे
पर न हरी पाती आती है
जल चाहें ज्वार बने।।।.
शिवनारायण जौहरी विमल

बुधवार, 21 जुलाई 2010

जिजीविषा

क्या किया अस्सी बरस तक
कभी बादल बने बरसे
प्यास धरती की बुझाई
भूख को क्या
बाल गेंहूँ की कभी तुमने खिलाई
नहीं तो फिर बेशरम सी
जिन्दगी किसलिए
किसके लिए
कब तक जियोगे
घाव के मरहम बने क्या
अधर को मुस्कान पहनाई
गुदडियों के लाल को तुमने
जिगर से अपने लगाया क्या
मैल मन का धो सके
क्या तुम किसी के
क्या सहारा दे सके किसी को
गर्त से ऊपर उठाया
भार बन कर इस धरा का
खून अब कब तक पियोगे
और अब कब तक जियोगे
रात कीलों पर सुलाकर
चरमराती हड्डियों को
दर्द से नहला धुला कर
टूटते अरमान झूठी
आस्था के व्दार रख कर
कराहों में लपेटे पल
और अब कब तक जियोगे
अभी तक तो रहे आए
तुम स्वयं से भी अकेले
योजना तुम से निकल कर
बस तुम्हीं पर टूट जाती थी
मैं कभी हम हो नहीं पाया
गीत तुमने एक अपना
ही सदा गाया बजाया
आत्म श्लाघा के लिए
अभी कुछ और बाकी है
विष वारूणी है यह
इसे अब और क्यों
किसके लिए पीते रहोगे
शिवनारायण जौहरी विमल

बुधवार, 16 जून 2010

शनिवार, 22 मई 2010

रविवार, 10 जनवरी 2010

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010